।। राजा की चिन्ता।।
राजा किसी सल्तनत का नवाब नहीं है
एक मामूली सा गाय का बछड़ा है
नाम है राजा,
एक वक्त था जब ऐसे राजा
खेत, खलिहान और दरवाजे की
शान हुआ करते थे
जिनके श्रम से उपजे अन्न पर
पलता था देश
लोग राजाओं की पीठ थपथपा कर
अपनी मूंछ तक ऐंठते थे
मशीनों की घुसपैठ क्या हो गई
राजाओं का जीवन खतरे में पड़ गया
राजाओ की एक पूरी पीढ़ी की
बोटी बोटी हो चुकी है
नई पीढ़ी पर चोर निगाहें टिकी हुई हैं
कम उम्र के राजा भेलख पड़ते ही
गायब हो जाते है रात के अंधेरे में
जिनका सुराग फिर कभी नही मिलता
लगेगा भी कैसे ?
बना दी जाती है उनकी मनचाही बोटियां
मेरे राजा यानि गाय के बछड़े पर भी
चोर निगाहें बिछी रहती है
शरीर से अक्षम पिता
रात के अंधेरे के खौफ़ से
पीटते रहते है लाठी
राजा की पहरेदारी में
ऐसे ही राजाओं के बल पर
खड़ा हुआ था कुटुंब
घर के दूसरे सदस्य भी करते है
राजा की चौकीदारी
राजा न बन पाए
किसी चोर का शिकार
राजा कुटुम्ब का है रुआब
कुटुम्ब बचाने में जुटा रहता है
राजा को बनने से बिरयानी, मसाला मटन,
टिक्का या कबाब।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
17/07/2017
।।मरते घर ।।
गांव विरान हो रहे हैं
धरती बंजर सी लगने लगी है
वो घर जहां पनपती थी यादें
पीढ़ियों पुराने पुरखों की
संवरते थे खून के रिश्ते
गूंजा करती थी विरासतें
गांव के घरों से उठा करती थी
लोरी किस्से सोहर की
मधुर स्वर लहरियां
तीज त्यौहार के दिन
गांव के घरों से तितलियों सी गीत गाती
तालाब पोखर की ओर बढ़ती थी
गांव की आन मान शान लड़कियां
पवित्र स्नान के लिए
वही पोखर तालाब अपवित्र हो चुके हैं
गांव के घर रोज रोज मर रहे है
गाँव विस्थापित हो चुका है
आकी बाकी भी हो रहा हैब
शहरों की भीड़ में
गांव में बचे है तो बार बार
चश्मे साफ करते हुए लोग
इंतजार में ताला जड़े मरते हुए घर
जातिवाद चट कर रहा सर्वस्व
सरकारें और जातिवाद के ठेकेदार
हो चुके है बेखबर
गांवों का देश खतरे में है
सरकारें ब्यस्त है दिन साल का
जश्न मनाने में और कागजी घोड़े दौड़ाने में
काश सरकारें और जातिवाद के ठेकेदार
उबर जाते अपने गुमान से
बच जाते नित मरते घर
विकास की बयार जुड़ जाती
विरान होते गांव से।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
16/07/2017
कितना दर्द होता है
ड्योढ़ी को लांघने से
दूरी अपनो से भयाक्रांत कर देती है
दर्द का बोझ लेकर भी
छोड़ना पड़ता है
घर द्वार सगे समन्धित
खून के रिश्ते भी
कमाया जा सके खनकते सिक्के
रोटी कपड़ा मकान और
पूरी करने के लिए जरूरते
जोड़ तोड़ में उम्र का बसंत
खो जाता है
जरूरतें मुंह बाये खड़ी रहती है
बचता है तो पिचका हुआ गाल
शरीर का बोझ उठाने में
असमर्थता जाहिर करते हुए
घुटने
धुंधली रोशनी लिए हुए
चक्ष
बीमारियों से घिरा शरीर
अपनी जहाँ में लाख सद्कर्म के बाद भी
नहीं संवरती तकदीर।
जातीय अभिशाप बन जाता है पाप
लाख पुण्य कर्म भी नहीं धो पाते
पाप ।।।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
12/07/2017
अपनी जहाँ में
अक्सर जो निर्दोष होते हैं
अथवा
हाशिये के लोग
मिटना पड़ता है
अपनी जहां में निरापद को हो
जो बोना चाहता है
सदा के सदकर्म, समता,सदाचार
सच्चाई और अच्छाई
ये कैसा दुर्भाग्य है
काटे जाते हैं
नेककर्म करने वाले हाथ
होते है
दफन करने के जी तोड़ प्रयास
अंधेरे में फेंक दिए जाते है
हाशिये के कर्मशील लोग
घोंट दिया जाता है गला
आगे निकल जाते है
कर्महीन पहुंच वाले हाथ
दर्द में दब जाते है
कर्मशील और ईमानदार हाथ
जो कभी टिके ही नही फ़र्ज़ पर
वही हाथ कैद कर लेते हैं
हक हाशिये के हिस्से के
पीछे छूट जाता है
अधमरा सा कर्मयोगी
हाशिये के आदमी अपनी जहाँ में
निरापद कष्ट में रहकर भी
बोता रहता है
फ़र्ज़, ईमानदारी और अच्छाई की फसल
अपनी जहाँ में
यही जज्बात ज़िंदा रखता है
हाशिये के आदमी को
कायनात में।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
12/07/2017
आपकी कविताएं वाकेय कबले तारीफ है हर कवितायों में कुछ कुछ नया पड़ने को मिलता है | और एक नै रह दर्शाती है | Talented India News
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