Saturday, November 1, 2014

जनतांत्रिक युग में/कविता

काश मेरी आँखे
ना देखीं होती
दिल ना किया होता भान
जनतांत्रिक युग में
आदमी - आदमी में भेद
वंश-वर्ण के नाम पर 
विषपान ………
जनतांत्रिक युग में
तहकीकात किया
अपनी और अपने समक्ष
व्यक्तियों तो पाया
सफलता दूर बहुत पडी है
असफलता छाती प् खड़ी है ………
जनतांत्रिक युग में
जीवित है सपने
अपने और उनके भी
रिसते जख्म से कराहते
ज्ञानी ,विज्ञानी कर्मयोगी ,महान 
घायल लहूलुहान
लग रहे है सभी ………
जनतांत्रिक युग में
जातीय- धार्मिक -रूढ़िवादी
बंदिशों में जकड़ा
साबूत और रूढ़िवादी दिलो पर
जमीं नफरत की मैल
कँटीले खर-पतवारों से
उठ रहे दर्द कि
तहकीकात कर लिया है
रूढ़िवादी समाज के
पेवन को उधेड़ते हुए.………
सोंचता हूँ क्यों ना कर दे
ऐलान
ठोंक दे ताल बना ले
हथियार 
लोकतंत्र ,संविधान 
रिपब्लिकन विचारधारा को
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के लिए
जनतांत्रिक युग में.……….
डॉ नन्द लाल भारती 09 .10 .2014
बिगुल बजा दो /कविता
लोकतंत्र का युग स्वर्णिम
हमारे गांव   कि कैद
नसीब ऐसी
बंजर-कांटेदार जमीन जैसी
जहां ना पहुंची आज़ादी 
ना ही संविधान  की परछाई ………
कैसी आज़ादी……?
कैसा  लोकतंत्र  ……?
वहां वही बात पुरानी 
जातिवाद का उठत धुँआ 
अपवित्र शोषित बस्ती का,
हैंडपाइप और कुंआ  ……… 
चौखट-चौखट जमीदारी,
पैमाइश
शोषित का तन-मन जैसे
कंगलो नुमाइश ………
अरे लोकतंत्र के पहरेदारो
जागो
स्वार्थ को अब त्याग दो
लोकतंत्र का बिगुल,
बजा दो ……… 
डॉ नन्द लाल भारती 0 8.10 .2014

अपनी जहां और मैं भी /कविता
विश्व की सर्वोपरि संकल्पना 
स्वर्णिम आभा जहां का
भारतीय संविधान
दुनिया का गर्व लोकतंत्र
भारत हुआ महान.................
अपनी जहां में जातीय-भेद
सब पर है भारी ,
भेदभाव -नफ़रत
इंसानियत के माथे कलंक
देश की महामारी......................
सच कहता हूँ
भेद भरी अपनी जहां वालो
जान लो अपने क़त्ल का ,
गवाह मैं भी हूँ
लोकतंत्र ज़ख्म छिलने का
वक्त नहीं होता 
पुराने हर दाग मिटाने का 
विकास के शिखर जाने का
स्वर्णिम वक्त होता ...........
युवाओ वक़्त की नब्ज पहचानो
और 
कर दो ललकार बेधड़क
समानता का हकदार तो 
मैं भी हूँ ...........
कह दो उनसे
सुन लो भेद का सुलगता
दर्द देने वालो
लगता होगा मुबारक तुम्हे
हमारा दहकता दर्द तुम्हे
देख लो 
अपनी जहां के प्रति वफादार
निर्विकार मै हूँ ...........
आंधिया चली तुम्हारी
सुनामी भी आये तुम्हारे बहुत
अपनी जहां में
पुश्तैनी हुकूमत क्या ……?
धरोहर जीने के सहारे तक
लूटते चले गए
मैं अनुरागी माटी के 
अपने उसूल पर फना होता रहा
भले ही अहकता 
तुम्हारे दिए दर्द से
अपना वजूद मिटने नहीं दिया
जहां से ………।
अरे अपनी जहां के नवजवानों
ललकार कर कह दो
चढ़ चूका है लोकतंत्र का नारा
संविधान का अक्षरशः पालन
और
असली आज़ादी लक्ष्य हमारा …। 
ठोंक कर ताल कर दो ऐलान
अरे अँधियारा बोन वालो
अँधेरे को चीरने निकल पड़ा हूँ ………।
नवजवानों सुन लो विनती
लोकतंत्र की नईया के
तुम्ही खेवईया
असली आज़ादी का सपना
हवाले तुम्हारे
सच मानो नयन ज्योति
अपनी जहां और मैं भी
जी रहे सहारे तुम्हारे ………।
डॉ नन्द लाल भारती 0 7 .10 .2014
लोकतंत्र की पतवार/कविता
अरे भारत के नवजवानों
संविधान के रक्षको
असली आज़ादी 
और
लोकतंत्र दीवानो। .........
अपने फ़र्ज़ को पहचानो
अब तो तुम हाशिये के
आदमी के दर्द को
पहचान लो
रिपब्लिकंन विचारधारा
लोकतंत्र को ऊँची उड़ान दो .........
हाशिये का आदमी
तुम्हारी तरफ ताक रहा है
हाशिये के आदमी और
देश को जरुरत है तुम्हारी .........
नयनज्योति तुमको जरुरत है
देश और 
समतावादी समाज की .........
उठ खड़े हो जाओ प्यारे
बहुत देर हो चुकी है
और  ना करो अब .........
कसम है तुम्हे 
तुम्हारे होश की जोश की 
लोकतंत्र की पतवार थाम लो .........
डॉ नन्द लाल भारती 0 6 .10 .2014

जन जन तक पहुँचाना है /कविता
रिब्पब्लिकंन /लोकतंत्र
जंजीरो को चटकाने की 
ताकत
अंधियारे के पार
उजियारा रोपने का है 
साहस .........
लोकतंत्र सुधि-बुध्दि का ,
अथाह संचार
मुक्तिदाता जनहित की 
पुकार .........
दुनिया बदलने की ताकत
लोकतंत्र
अपनी जहां के बाधित क्यों 
लोकतंत्र .........
अपनी जहां में लोकतंत्र 
सफल बनाना है 
असली आज़ादी  
हाशिये के आदमी 
और 
जान-जान तक 
पहुँचाना है .........
आओ लोकतंत्र के सिपाहियों 
जातिवाद-धर्मवाद को त्यागे 
बहुजनहिताय -बहुजसुखाय 
की राह 
चले आगे-आगे .........
डॉ नन्द लाल भारती 05 .10 .2014
...............................................
संविधान /कविता

पुष्पवर्षा,हृदयहर्षा 
आज़ादी का कर अमृतपान 
अपनी जहां अपना संविधान .........
हरे हुए मुरझाये सपने
अपनी-अपनी आज़ादी,
अपने- अपने सपने ................
अपनी जहां अपना लोकतंत्र ख़ास
हर मन विह्वल,पूरी होगी आस ...........
आज़ादी का एहसास सुखद
दिल को घेरे जैसे बसंत ................
अपनी धरती अपना आसमान
समता -सदभावना,विकास हो पहचान .......
जातिववाद -सामंतवाद का अभिशाप ]
नहीं ख़त्म हो रहा
बहुजाहिताय-बहुजन सुखाय का
सपना दूर रहा ................
अपनी जहां वालो आओ करे
लोकतंत्र का आगाज़
देश में हो सर्वधर्म -समभाव
संविधान हो साज ................
डॉ नन्द लाल भारती 04 .10 .2014







अभिलाषा/कविता
खुद को कर कुर्बान,
अपनी जहां को 
आज़ादी की देकर सौगात
वे शहीद हो गए 
कर्ज के भार अपनी जहां वाले 
दबे के दबे रह गए …………
आज़ादी का उदघोष चहुंओर
अपना संविधान 
लागू हुआ पुरजोर  ....
पर  नियति की खोट 
आज़ादी के मायने बदल गए 
ना पूरी  हुई असली 
आज़ादी की आस
ना हुआ संविधान 
राष्ट्र ग्रन्थ ख़ास ख़ास  …………
कहते है ,
कर्म से नर नारायण होता
अपनी जहां में आदमी
जातिवाद,भेदभाव से
दबा कुचला रह गया रोता …………
अरे लोकतंत्र के पहरेदारो
अपनी जहा के शोषितो की,
सुधि लो
शोषितो कि समतावादी
सुखद कल की
तुमसे है आशा
अब तो कर दो पूरी 
असली आज़ादी की अभिलाषा…………
डॉ नन्द लाल भारती 03 .10 .2014

ललकार ....... कविता

रिपब्लिकन कहे या लोकतंत्र
मतलब तो एकदम साफ़
संघे शक्ति और 
सब देशवासी एक साथ .......
या यो कहें ,
लोकतंत्र जातिनिरपेक्षता -
पंथनिरपेक्षता -धर्मनिरपेक्षता
राष्ट्र-लोकहित ,
मानवीय मूल्यों का
पुख्ता अधिकार .......
कल भी अपना
कुछ ख़ास नहीं रहा
आज भी ठगा -ठगा सा
कल से तो है आस .......
फिक्र है भारी अपने माथे
लोकतंत्र के दुश्मन
जातियुध्द -धर्मवाद
दहकता नफ़रत का प्रवाह
क्षेत्रवाद -नक्सलवाद
सीना ताने .......
रक्षक होते भक्षक ,
सफ़ेद करते काले
हाशिये के आदमी की
फ़रियाद यहां कौन माने .......
बदलता युग बदलती सोच
लूट रहा  
असली आज़ादी का सपना
कैद ही रह गया 
शोषित आदमी का सपना .......
आओ सब मिलकर करे
ललकार ,
संविधान का हो अक्षरशः पालन
तभी मिलेगी असली आज़ादी ,
कुसुमित रह पायेगा  
मानवीय हक़ और अधिकार .......
डॉ नन्द लाल भारती 02 .10 .2014

लोकतंत्र का उद्देश्य--------

लोकतंत्र का उद्देश्य 
परमार्थ ,देश हित 
मानव सेवा लोकमैत्री सदभाव
मानव को मानव होने का
सुख मिले भरपूर
शोषण अत्याचार ,भेदभाव
अपनी जहां से हो दूर,
शूद्र गंवार ढोल पशु नारी
ये ताडन के अधिकारी
अपनी जहा में ना गूंजे ये
इंसानियत विरोधी धुन
समानता राष्ट्रिय एकता को
अब ना डँसे 
कोई नफ़रत के घुन
अरे अपनी जहां वालो
रिपब्लिकन यानि लोकतंत्र के
मर्म को पहचानो
संविधान को
जीवन का उत्कर्ष जानो
आओ कर दे ललकार
रिपब्लिकन विचारधारा
और
संविधान से ही होगा
अपनी जहां का उध्दार--------------------
डॉ नन्द लाल भारती 01 .10 .2014

लोकतंत्र------

लोकतंत्र की चली हवा
अपनी जहां में
अथाह हुए
स्वाभिमान अपने
देश आज़ाद अपना
जाग उठे सारे सपने
लोकत्रंत्र हो गया साकार
देश अपना ,
अपनो की है सरकार
हाय रे निगाहें
उनकी और न गयीं
ना बदली तकदीर उनकी
हाशिये के लोग जो
टकटकी में 
उम्र कम पड़ गयी
अब तो तोड़ दो
आडम्बर की सारी सरहदे
खोल दो समानता ,
हक़ -अधिकार की बंदिशे
आओ सपने 
फिर से बो दे प्यारे
अपनी जहां में
निखर उठे मुकाम
लोकतंत्र में ,
बसे प्राण आस हमारे।
डॉ नन्द लाल भारती 30 .09.2014


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