Sunday, January 26, 2014

वो , दौलत ओहदा कहाँ

माना कि हमारे पास वो ,

दौलत ओहदा कहाँ
बस बची खुदनसीबी
इतनी सी अपनी भी
अपनी जहा में
हो जाती है सुबह
सूरज के संग
रात गुजर जाती है
चंदा के रंग ,
हमें मलाल नहीं खुदा से
आदमी से जरुर है ,
बाँट  दिया जो खंड-खंड
आदमी को
आदमी ना होने का मिलता है दंड
काश कोई मिल जाता
२१वीं सदी में नया मसीहा ,
गूथ देता बिखण्डित ,
मनका -मनका को ,
हो जाता रोशन अपना जहा भी भी
मिल जाती हर दौलत मन को……।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com
23.01.2014    

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