Sunday, October 13, 2013

कविताyen.........

शंखनाद  /कविता
कब तक दबाओगे आवाज़ ,
अब तो शंखनाद करने दो।
कब तक डंसेगा ,पुराना जख्म ,
अब तो पूज जाने दो।
अबला जीवन स्वीकार नहीं,
अब तो सबला  बन जाने दो।
घर-गृहस्ती का मान
 अमान्य नहीं 
अब तो नभ नाप लेने दो।
आरक्षण,
 ना कर पायेगा भला
खुद के पाँव खड़ी हो जान दो।
अधिकार हमें भी
आज़ादी का
अब तो थोंथी  बाते ,
बदल जाने दो।
क्या आंसू  पीकर ,
जीना ही नसीब है ,
अब तो मुक्ति पा जाने दो।
सीता-सावित्री का मुकुट भार नहीं
अब तो वक्त के साथ ,
चल जाने दो।
बहुत हुई अग्नि-परीक्षायें ,
और अब ना ,
बस अब तो पाँव टिकाने दो……… डॉ नन्द लाल भारती




मैं हारता चला गया /कविता
मैं हारता चला गया ,
चला राह ईमान ,फ़र्ज़ सेवा काम की
तबाह होती गयी मंजिले ,
उम्मीदों का खून होता चला गया ,
मैं हारता चला गया………
हार के बाद जीत की नई आशा
लहूलुहान संभलता चला गया
नया जोश नई उमंगें
घाव सहलाता चला गया
मैं हारता चला गया………
हार के बाद जीत की आशा
 रूठ-लूट सी गयी
 योग्यता बेबस लगने लगी
रिसते घाव पर
संतोष का मलहम
लगाता चला गया
मैं हारता चला गया………
जवान जोश संग  होश भी
बूढ़ी उम्मीदे सफ़ेद होती जटा
चक्षुओ पर मोटा ऐनक   डटा
मरता आज कल को फंसी की सजा
जहां में छलता चला गया
मैं हारता चला गया………
उम्मीदे मौत की शैय्या पर पडी
सद्काम -नाम बेनूर हो रहा
मृत शैय्या पर पड़े
भविष्य के सहारे
मरते सपनों की शव यात्रा
विष पीता -मरता चला गया
मैं हारता चला गया……… डॉ नन्द लाल भारती

अभिमन्यु की मौत/कविता
सब्र की खेती ,उम्मीदों की बदली
सूखने लगे उम्मीदों के सोते ,
वज्रपात कल का डरा रहा विरान ,
जहर पीकर कैसे जीये  कैसे सीये,
भेद-भरे जहां में बड़े दर्द पाए है ,
दर्द में जीना आंसू पीना ,
नसीब बन गया है।
तकलीफों के दंगल में
तालीम से मंगल की उम्मीद थी ,
वह भी छली गयी ,
श्रेष्ठता के दंगल में छल-बल के सहारे ,
अदना क्या अजमाए  जोर ,
जीना और आगे बढ़ने का जनून ,
मौन गिर-गिर उठाता कर्म के सहारे।
नहीं मिलता भरे जहां में कोई
आंसू का मोल समझने वाला
पकड़ा राह सधा- श्रम ,सपनों की आशा ,
खडी  भौंहे कुचल जाती अभिलाषा ,
ऐसा जहां है प्यारे,
स्वहित में परायी आँखों के सपने जाते है ,
बेमौत मारे।
ईसा,बुध्द और भी पूज्य हुए इंसान ,
कारण  वही जो आज है जवान ,
भेदभाव दुःख-दरिद्रता ,जीव दया, मानवहित ,
परपीड़ा  से उपजे दर्द को खुद का माना
किये काम महान ,
दुनिया मानती उन्हें भगवान।
वक्त का ढर्रा वही बदल गया इंसान
कमजोर के दमन में देख रहा
सुनहरा स्व-हित आज इंसान
दबंग के  हाथो कमजोर के सपनों का क़त्ल
अभिमन्यु के मौत समान
आओ खाए कसम ना बनेगे शैतान
ना बोएगे विष ना कमजोर का हक़ छिनेगे
मानवहित-राष्ट्रहित को समर्पित होगा जीवन
बनकर दिखायेगे परमार्थ  में सच्चा इंसान।
डॉ नन्द लाल भारती



निरापद/कविता
रात सो चुकी थी ,
मेरी आँखों से नींद दूर थी.
रह-रह कर करवटें
बदल रहा था ,
हर तरफ से भूत कोई
आँखों में उतर रहा था।
मैं आतंक से भयभीत था
लहू से रंगा खंजर हाथ में था
गैर नहीं कोई अपना ही था
दिल में लकीरों  का
ताना-बाना  था
अब घरौंदा  उजड़ने लगा था .
चहुतरफा
घेराव था ,
रिश्ते से लहू रिस रहा था।
भयभीत मैं,
 वह मुस्करा रहा था
मौजूद तबाही का पूरा ,
साजो-सामान था।
मैं सुलग रहा था
खुद के तन के ताप से ,
विजयी मुद्रा में
वह तर  बतर था जाम से।
बरबादियो का शंख ,
फूंक चुका था
,
मै  निरावाद जाल में ,
फंस चुका था।
रात चुप थी मैं बेचैन था,
कल से उम्मीद थी ,
आज से डर
था।
लहू का प्यासा,
 ताल ठोंक रहा था
उम्मीदों के बंजर को भारती
आंसुओ से सींच रहा था  …… डॉ नन्द लाल भारती
हमारी बेटियाँ /कविता
उगता हुआ सूरज शशि चाँद है ,
हमारी  बेटियाँ ,…………।
जमाने की बहार ,
सौभाग्य है
हमारी  बेटियाँ ,…………।
नभ के तारे ,धरा की शान है
हमारी  बेटियाँ ,…………।
बसंत है बहार है
रिश्ते की आन-मान है
हमारी  बेटियाँ ,…………।
सभ्यता ,समाज के उजली
पहचान है
हमारी  बेटियाँ ,…………।
अफ़सोस कहीं भ्रूण हत्या
तो कही जलाई जा रही
हमारी  बेटियाँ ,…………।
भारती करें कठोर प्रतिज्ञा
बचाए आन-मान -पहचान
जो है
हमारी  बेटियाँ ,…………डॉ नन्द लाल भारती




कैसा धर्म /कविता
आजकल शहर खौफ में
जीने लगा है ,
कही दिल तो कही
आशियाना जल रहा है।
आग  उगलने वालो को,
भय लगाने लगा है .
तभी तो शहर चैन खोने लगा है।
धर्म के नाम पर ,
लहू का खेल होने लगा है।
सिसकियाँ थमती नहीं ,
तब तक नया घाव होने लगा है।
कही भरे बाजार तो कही चलती ट्रेन में,
 धमाका होने लगा है
आस्था के नाम पर,
लहू कतर-कतर होने लगा है।
कैसा धर्म ,धर्म के नाम
आतंक होने लगा है ,
लहुलुहान कायनात
धर्म बदनाम होने लगा है।
आसूओ का दरिया,
कराहने का शोर पसरने लगा है ,
धर्म के नाम बाटने वालो का
जहां रोशन होने लगा है ,
आसॊओ को पोंछ भारती
आतंकियों को ललकारने लगा है
धर्म सदभाव बरसाता ,
क़त्ल क्यों होने लगा है
आजकल शहर
 खौफ में जीने लगा है। डॉ नन्द लाल भारती






आओ चलो हमारे गाँव /कविता
आओ चलो हमारे गाँव,
सिसकता गाँव दिखता हूँ ,
विकास की विरान ,
तस्वीर दिखता हूँ ,
वंचित मजदूरों की बस्ती में ,
चिथडों में सम्मानित ,
लाज दिखता हूँ ,
पेट पीठ से कैसे लगता
पहचान कराता हूँ ,
छुआछुत का कैसे
पालथी मारा है कोढ़
मसीहाओ की खुल जाएगी पोल,
भय-भूख दीनता में ,
सॉत-जागता है गाँव,
असली तरक्की के नहीं पड़े है पाँव ,
झूठे है सारे आकड़े ,
धधक रहा है ,
तरस रहा है चौथा कुनबा
चलो तहकीकात करता हूँ ,
कैसा होता ,
मरते सपनों का दर्द,
कैसा होता दर्द से उपजा ,
नयन नीर
कैसे गरमाता चूल्हा ,
दृष्टिदान करता हूँ
चलो हमारे साथ ,
जहां होती हरदम सांझ
ऐसे गाँव  दिखाता हूँ ………………
डॉ नन्द लाल भारती

देखो आदमी बदल रहा है /कविता
देखो आदमी बदल रहा है,
आज खुद को छल रहा है ,
अपनों से बेगाना हो रहा है
मतलब को गले लगा रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.…………
और के सुख से सुलग रहा है
गैर के आंसू पर हंस रहा है ,
आदमी आदमियत से दूर जा रहा है ,
देखो आदमी बदल रहा है.………………
आदमी आदमी का नहीं हो रहा है
आदमी पैसे के पीछे भाग रहा है
रिश्ते को रौंद रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.………………
इंसान के बस्ती में भय पसर रहा है
नाक पर स्वार्थ का सूरज उग रहा है
मतलब बस छाती पर मुंग दल रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.………………
खून का रिश्ता घायल हो गया है
आदमी साजिश रच रहा है
आदमी मुखौटा बदल रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.………………
दोष खुद का समय के माथे मढ़ रहा है ,
मर्यादा का सौदा कर रहा है
स्वार्थ की छुरी तेज कर रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.………………
डॉ नन्द लाल भारती







स्नेह विनय-अनुनय आज़ाद-अनुराग है बेटियाँ ,
धरती की साज रीति-प्रीति बासंती राग हैं  बेटियाँ।
…………………।
अनुराग अलौकिक,  माँ-बाप की स्वाभिमान है    बेटियाँ ,
 रिश्ते की डोर  भाई के माथे की चन्दन-तिलक है बेटियाँ।
……………
परिवार घर-मंदिर की फुलवारी है बेटियाँ ,
सच त्याग और  स्नेह की मूरत है  बेटियाँ।
…………………
बेटी है तो जीवन के हर पल बसा है बसंत,
बिन बेटी जीवन पतझड़ और रिश्तो का अंत ।
............
बेटी है तो रिश्तो में  उजला स्व-मान है ,
बसंत बयार बेटी, जीवन की  वरदान है ।
…………
डॉ नन्द लाल भारती /11. 10. 2013



देश-जन हित में ,बह रहे पसीने को ,जीवन की एक-एक बूंद कहना ,
खुदा की कसम अपनी जहां वालो, श्रमवीर को देव-तुल्य समझना ।
……………….
जीवन नईया  हाथ तुम्हारे बलिहारी
नर पिशाच निगाहे लाज रखना बनवारी।
…………………
हम तो बस मुसाफिर है    यारो  सांस  तक चलते है जाना ,
मतलबी लोग तम घनघोर मुश्किल  सफ़र पर पार है जाना ।
…………
जीवन बगिया में अपनी हादशे हुए , हो रहे निरंतर ,
कैद  नसीब,लूटते हक़ को बचाने के फेल सब मंतर  ।
……………….
नदियाँ  ढो -ढो  कर शहर की गन्दगी बन रही गंदे  नाले ,
अम्बर बौखलाता अब कही ये  प्रदूषण जीवन ना खा ले। 
------------------------
डॉ नन्द लाल भारती /09. 10. 2013

बेटियाँ जीवन सार हैं यारो
सुखद अनुभूति हजारो ,
धरती की है ऋतु बसंत  ।
रिश्ते की आन-मान शान ,
खौफ खाओ खुद से यारो ,
ना करो कन्या भ्रूण का अंत।।
डॉ नन्द लाल भारती /10. 10. 2013

No comments:

Post a Comment