Monday, September 9, 2013

राह दिखा दे /कविता

राह दिखा दे /कविता

ये ऊपर वाले अब तो ,
राह दिखा दे
अपनो बन्दों को जो
उपकार,उदारता समानता ,
भूलते जा रहे है ,
दयाभाव,अहिंसा से दूर,
जा चुके है
सच्चाई और कर्त्तव्य पर
खरे नहीं उतर रहे है ,
अँधा बांटे रेवड़ी अपने को दे
चरितार्थ करने लगे है ,
लूट जाही कमजोर की नसीबे
शोषित-वंचित तुम्हारी दुनिया में
बिन पानी की मीन हो रहे है ,
ये ऊपर वाले अब तो राह ,
दिखा देते ,
 अदना,दर्द पीकर जीने वाला
किससे करेवफ़ा की उम्मीद
तुम्हारी दुनिया में ,
हाड -मांस के बने  लोग
कागज के टुकड़ो में ,
बिक रहे  है
डॉ नन्द लाल भारती 09   .09 . 2013  

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