Thursday, August 29, 2013

शूल भरी राह/कविता

शूल भरी राह/कविता 
सच लगने लगा है ,
कुव्यवस्थाओ   के बीच थकने लगा हूँ ,
वफ़ा,कर्तव्य परायणता पर
शक की कैंची चलने लगी है ,
 ईमान पर भेद के पत्थर बरसने लगे है
कर्म-पूजा खंडित करने की  ,
साजिशे तेज होने लगी  है ,
पुराने घाव तराशे जाने लगे है ,
भेद भरी जहा में बर्बाद हो चुका है ,
कल-आज भी
कल क्या होगा,क्या पता
कहा से कौन तीर छाती में छेद  कर दे ,
चिंतन की चिता पर बूढा होने लगा हूँ
उम्र के मधुमास पतझड़ बन गए है
पतझड़ बनी जिन्दगी से
बसंत की उम्मीद लगा बैठा हूँ ,
कर्मरत मरते सपनों का बोझ उठाये
फिर रहा हूँ
कलम का साथ कोई  बन जाए
मिशाल अपनी भी
इसी  इन्तजार  में शूल भरी राहो  पर
 चलता जा रहा हूँ।,,,,,,,,,,,, डॉ नन्द लाल भारती 30. 08. 2013 ।



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