Friday, October 12, 2012

ये जो बारात है ............

ये जो बारात है
लगने लगा है ये जो बारात है
किराये के नचनिहे भर है
बाकी कुछ भी नहीं
तनिक कुछ लगता भी है तो
वार्णिक जंगल में
अमंगल सरीखे हो जाता है ...................
बड़े अरमान थे
उम्र का बसंत जहां बीतेगा
जिस छांव में भी बीतेगा
यादगार होगे दुनिया ..................
ऐसा न हो सके
यहाँ बिखरा-बिखरा रह गया
ऐसा नहीं की जुड़ना नही चाहा
बहुत कोशिशों के बाद भी
वैसे ही रह गया जैसे सदियों पुराने
हां साथ काम करने,बैठने का मौका मिला
इतना भर ही
बाकी तो वैसे ही रहा जैसे
पुराने ज़माने में ..
हां थोडा सा बदलाव तो है
सामने से आक्रमण नहीं होते अब
पीछे से होते है
जिनके परिणाम भयावह होते .......................
मौके-बेमौके  छुरी चल ही जाती है
चलेगी छुरी तो घाव होगा
आत्मा रोएगी भी
सुनने वाला  कोइ नहीं
बदले युग की दहकती घाव
आज भी सुलगा रही है --.....................
जीवन हक़ और योग्यता भी
पंख होते तो किसी और जहा में होते
जहां ना मन रोता लोग अपने होते----------------
सच लगाने लगा है
अपनी जहां में लोग अपने नहीं
है तो जाति ,बिरादरी और
रुढ़िवादी धर्मान्धता के लोग
मानवतावादी लोग नहीं
यही रोग खाए जा रहा है
लगने लगा है ये जो बारात है
किराये के नचनिहे भर है -....................नन्द लाल भारती 12.10.2012

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