Friday, March 2, 2012

टूटने लगी हैं आस्थाए.

टूटने लगी आस्थाएं
ढहने लगे विश्वास के ठीहे
उभरने लगे नित,दर्द नए-नए
मन बावरा खुद गुने,खुद सुने
रंग बदलती दुनिया में,कौन सुने.............
आस की सांस पर जीवन
होंठ जैसे सीले हैं प्यारे
खुले तो यातना-प्रताड़ना
उजड़ते नसीब हमारे
देख जहां की खोट
मन घबराए...........
जग जाने परमशक्ति के आगे
बौने हम कितने
कलुषित व्यवहार
लूट-खसोट,गफलत-रंजिश
रार-तकरार
विसर गया करतब
शेष विषैला मतलब..........
अंखिया ताके जोजन कोस
अनदेखी वैसी
जैसी भरी दोपहरी में ओस
भरते दम जैसे
पक्के मीत
हाय रे लोग परसते विष
राग-द्वेष,छल बल से
लूट रहे कल
आम-हाशिये के आदमी की
कौन हरे बाधाये
अब तो टूटने लगी हैं आस्थाए....नन्दलाल भारती/ ०३.०३.२०१२

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