Friday, July 22, 2011

उम्मीदों में जीना सीख गया हूँ

उम्मीदों में जीना सीख गया हूँ
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मरते हुए सपनों का दर्द
कितना भयावह होता है
मैं जान गया हूँ।
दर्द में जी रहा हूँ
उम्मीदों को सी
रहा हूँ
क्योंकि मैं
मरते हुए सपनों को
ऑक्सीजन देना
सीख गया हूँ।
यही मेरी कामयाबी है
पद और दौलत से बेदखल
खुली आँखों से सपने
देख रहा हूँ
उम्मीद में जी रहा हूँ ।
मानता हूँ मेरे सपनों का
क़त्ल हुआ है
जातीय भेद की बलिबेदी पर
तभी तो मैं और मेरे जैसे लोग
पद-दौलत और खुद की
जमीन से बेदखल है ।
बेरहम जमाना भले ही
सपनों का क़त्ल करता रहे
उम्मीद के धागे
सपनों को जोड़ते रहेगे
मै और मेरे जैसे लोग
दर्द से दबे रहकर भी
उम्मीद बढ़ते रहेगे ।
मान गया हूँ
इस जहा में जब तक
सामाजिक भेद और
आर्थिक अन्याय होगा
तब तक हाशिये के सपने
मारे जाते रहेंगे ।
मुझे भी मरते सपनों को
देखकर जीना आ गया
सपने तो सपने है
मरता हुआ देखकर
पलकें गीली तो होती है
योग्यता का क़त्ल हुआ
या मेरा या मेरे जैसे लोगो का
बात मौत की है
ये बे-वक्त मौत उम्मीदों को
मौत नहीं दे सकती
क्योंकि मेरे जैसे लोग ही नहीं
मै भी
उम्मीदों में जीना
सीख गया हूँ ...नन्द लाल भारती २२.०७.२०११

1 comment:

  1. अच्छी प्रस्तुति ..उम्मीद में जीना ही असल में जीना है ..

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