Friday, December 10, 2010

झरोखे से

झरोखे से
दरारों ने जुल्म को
आंसुओ से
संवार रखा है ,
आशा की परतों को
ज़माने से रोक रखा है ।
कराहटो का आहटो में
धुँआ -धुँआ
सा लग रहा है ,
परिंदों में क्रुन्दन
लकीरों पर
अआमी मर रहा है ।
आँखों में सैलाब
दिल में दर्द
उभरने लगा है ,
आदमी के बीच
सीमाओ का
द्वन्द बढ़ने लगा है ।
दिल पर नई-नई
पुरानी खरोचे के
निशान बाकी है ,
खून से नहाई लकीरे
लकीरों की क्या झांकी है ।
जुल्म के आतंक के साए
मन रहा नित मातम
बस्तियों से उठ रही
चीखे
आदमी ढाह रहा सितम ।
सहमा सहमा सा कमजोर
चहुओर धुँआ -धुँआ है
छाया ,
आदमी-आदमी की नब्ज को
नहीं पढ़ पाया ।
भर गयी होती
घावे
दिल की दरारे अगर ,
आदमी खंड-खंड न होता
ना हुआ ऐसा मगर ।
चल रहा खुलेआम
जोर का जंग
आज भी ,
लकीरों के निखार का
यही राज भी ।
दिलो को जोड़ देते
भारती स्नेह के झोको से
छंट जाती आंधिया
बह जाता सोधापन
दिल के झरोखों से ...............नन्दलाल भारती

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