Wednesday, August 25, 2010

कैनवास

कैनवास
बिटिया बड़ी होने लगी है
और
मेरा घर लगने लगा है
छोटा ।
बिटिया
अंगुली पकड़ते-पकड़ते
उड़ान भरने लगी है
बौना हो गया है
वक्त
नन्ही अंगुलियों का
स्पर्श
कल की बात
लगती है।
बिटिया की सोच का
कैनवास
बड़ा हो गया है ,
बढ़ते कैनवास को
देखकर
बढ़ने लगा है
मेरा आत्मबल ।
बिटिया
जमा करने लगी है
रंग
दुनिया सजाने के लिए ।
खुद के खींचे खाके में
भर देती है
रंग और
जीवंत कर देती है
कल्पना
रह जाता हूँ
मै भौचक्का ।
सोचता हूँ
क्या...?
वही गिर-गिर कर चलती
तुतलाती दिवार पर
लकीर उकेरती
बिटिया है
जिसने थाम लिया है
कूंची
और
भरने लगी है
रंग
दुनिया के कैनवास पर....... नन्द लाल भारती ॥ २५.०८.२०१०

1 comment:

  1. भाव से परिपूर्ण प्रस्तुति

    आँखों में बिटिया का चित्र घूम जता है.

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